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शेर-ए पंजाब महाराजा रणजीत सिंह की हिम्मत और बहादुरी की कहानी

शेर- पंजाब के नाम से मशहूर महाराणा रणजीत सिंह पंजाब प्रांत के राजा थे| पंजाब के इस शेर ने अपनी हिम्मत और बहादुरी के दम पर कई युद्ध विजय किये और अपना नाम भारत के स्वर्ण अक्षरों में दर्ज़ किया| महाराजा रणजीत एक ऐसी व्यक्ति थे, जिन्होंने केवल पंजाब को एक सशक्त सूबे के रूप में एकजुट रखा, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के आस-पास भटकने भी नहीं दियातो चलिए आपको इस बहादुर बेटे के जीवन की कहानी और रोचक किस्से बताते हैं|

प्रारंभिक जीवन परिचय

बचपन में चेचक की बीमारी के कारण उनकी बायीं आँख दृष्टिहीन हो गयी थी| अपना पूरा बचपन रणजीत सिंह ने कड़ी चुनौतियों का सामना करने में निकला| वह जब 12 वर्ष के थे तब उनके पिता की मृत्यु हो गयी थी| जिसके बाद उन्हें मिसल का सरदार बना दिया गया और उन्होनें पूरे जोश और साहस से अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई | उन्हें शांत स्वाभाव का पता इस बात से चलता था की वह अपने दरबारियों के साथ ज़मीन पर बैठ पर सभा करते थे और वह सभी धर्मों के प्रति समान भाव रखते थे| पिता की जगह लेने के बाद उन्होंने जनता को आर्थिक तंगी से दूर करना और सभी धर्म की रक्षा करना ही अपना कर्तव्य और धर्म बना लिया था| करीबन 40 वर्ष तक शाशन करने के बाद अपने राज्य को उन्होने इस कदर शक्तिशाली और समृद्ध बनाया कि उनके जीते जी किसी भी आक्रमणकारी सेना की उनके साम्राज्य की ओर आँख उठा नें की हिम्मत नहीं की|

युद्ध में कैसे जीत पायी

महाराजा रणजीत ने अफगानों के खिलाफ बहुत सी लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर भगा दिया| जिसके बाद पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर उन्हीं का अधिकार हो गया| यह पहला मौका था जब पश्तूनों पर किसी गैर मुस्लिम ने राज किया| उसके बाद उन्होंने पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर पर अपना कब्ज़ा जमाना शुरू किया|

अमृतसर की संधि के दौरान

महाराज रणजीत सिंह के सैनिकों ने बचने के लिए अंग्रेजो से संरक्षण देने की प्रार्थना की| तब  गर्वनर जनरल लार्ड मिन्टो ने सर चार्ल्स मेटकाफ को रणजीत सिंह से संधि करने हेतु उनके वहाँ भेजा|पहले तो रणजीतसिंह संधि प्रस्ताव पर सहमत नही हुए परंतु जब लार्ड मिन्टो ने मेटकाफ के साथ आक्टरलोनी के नेतृत्व में एक विशाल सैनिक टुकड़ी भेजी और उन्होंने अंग्रेज़ सैनिक शक्ति की धमकी दी तब रणजीतसिंह को नामंजूरी होते हुए भी झुकना पड़ा था|

कांगड़ा पर कैसे हासिल की विजय (ई॰ 1809)

अमरसिंह थापा नें ई॰ 1809 में कांगड़ा पर हमला किया था| मगर उस समय वहाँ संसारचंद्र राजगद्दी पर थे| मुसीबत के समय उस वक्त संसारचंद्र नें रणजीतसिंह से मदद मांगी, तब उन्होने फौरन उनकी मदद के लिए एक विशाल सेना भेजी और सिख सेना को सामने आता देख कर ही अमरसिंह थापा की हिम्मत जवाब दे गयी| जिसके बाद वह सेना उल्टे पाँव वहाँ से भाग निकले|  इस प्रकार कांगड़ा राज्य पर भी रणजीत सिंह का अधिकार हो गया|

मुल्तान की जीत  (ई॰ 1818)

ई॰ 1818 में मुल्तान के शासक मुजफ्फरखा थे उन्होने सिख सेना का साहस के साथ सामना किया  पर अंत में उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा था| महाराजा रणजीत सिंह की और से वह युद्ध मिश्र दीवानचंद और खड्गसिंह नें लड़ा था और मुल्तान पर विजय प्राप्त की| इस तरह महाराजा रणजीत सिंह नें ई॰ 1818 में मुल्तान को अपने कब्ज़ें में किया|

कटक राज्य पर विजय (ई॰ 1813)

साल 1813 में महाराजा रणजीत सिंह ने अपनी सझ बूझ और कूटनीति से काम लेते हुए कटक राज्य पर भी कब्ज़ा जमाया| ऐसा कहा जाता है की उन्होंने कटक राज्य के गर्वनर जहादांद को एक लाख रूपये की राशि भेंट दे कर ई॰ 1813 में कटक पर अधिकार प्राप्त किया|

कश्मीर पर पायी सबसे ख़ास जीत (ई॰ 1819)

महाराजा रणजीत सिंह नें 1819 . में मिश्र दीवानचंद के नेतृत्व मे विशाल सेना कश्मीर की तरफ आक्रमण के लिए भेजी| तब कश्मीर में अफगान शासक जब्बार खां का शाशन था| उन्होनें रणजीत सिंह की भेजी हुई सिख सेना का मुकाबला किया और वह हार गए| जिसके बाद कश्मीर पर भी रणजीत सिंह का पूर्ण अधिकार हो गया था|

डेराजात की विजय (ई॰ 1820-21)

कश्मीर पर अपना कब्ज़ा करते ही वह ई॰ 1820-21 में क्रमवार डेरागाजी खा, इस्माइलखा और बन्नू पर विजय हासिल कर के अपना अधिकार सिद्ध किया|

पेशावर की जीत (ई॰ 1823-24)

ई॰ 1823. में महाराजा रणजीत सिंह ने एक विशाल सेना पेशावर भेजी| उस समय सिक्खों ने वहाँ जहांगीर और नौशहरा की लड़ाइयो में पठानों को करारी हार दी| जिसके बाद पेशावर राज्य पर जीत हासिल की|  महाराजा की अगवाई में ई॰ 1834 में पेशावर को पूर्ण सिक्ख साम्राज्य में सम्मलित कर लिया गया था|

लद्दाख की जीत (ई॰ 1836)

ई॰ 1836 में महाराजा रणजीत सिंह के सिक्ख सेनापति जोरावर सिंह ने लद्दाख पर ज़ोरदार हमला किया और लद्दाखी सेना को हरा कर के लद्दाख पर भी अपना राज्य स्थापित किया| जिसके बाद राजा रणजीत सिंह का मान सम्मान और ज्यादा बढ़ गया|

कोहिनूर का हीरा

महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद ई॰ 1845 में अंग्रेजों नें सिखों पर बड़ी सेना के साथ आक्रमण किया| जिसके बाद फिरोज़पुर की लड़ाई में सिख सेना के सेनापति लालसिंह नें अपनी सेना के साथ विश्वासघात किया और अपना मोर्चा छोड़ कर लाहौर चले गए| उस समय अंग्रेज़ो नें सिखों से कोहिनूर हीरा लूट कर कश्मीर और हज़ारा राज्य छीन लिया था| तब कोहिनूर हीरे को लंदन ले जाय गया और वहाँ ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया के ताज में जड्वा दिया गया| 

महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु

महाराजा रणजीत सिंह ने 58 साल की उम्र में सन 1839 में वीरगति को प्राप्त किया था| उन्होने अपने अंतिम साँसे लाहौर में ली थी| उन्होंने सबसे पहली सिख सेना की स्थापना की थी|उनकी मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र महराजा खड़क सिंह ने उनकी गद्द्दी संभाली|

ये थी महान राजा रणजीत सिंह के जीवन की अद्भुत कहानी| जिन्होंने जीवन में कभी भी हार नहीं मानी और एक के बाद एक राज्यों की स्थापना की थी|

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